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देवता: उषाः ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प्र꣢ति꣣ ष्या꣢ सू꣣न꣢री꣣ ज꣡नी꣢ व्यु꣣च्छ꣢न्ती꣣ प꣢रि꣣ स्व꣡सुः꣢ । दि꣣वो꣡ अ꣢दर्शि दुहि꣣ता꣢ ॥१७२५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः । दिवो अदर्शि दुहिता ॥१७२५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । स्या । सू꣣न꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ । ज꣡नी꣢꣯ । व्यु꣣च्छ꣡न्ती꣢ । वि꣣ । उच्छ꣡न्ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣡सुः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣣दर्शि । दुहिता꣢ ॥१७२५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1725 | (कौथोम) 8 » 3 » 6 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 2 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में भौतिक उषा के दृष्टान्त से दिव्य उषा का वर्णन किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (सूनरी) उत्तम नेत्री, (जनी) प्रकाश की जननी, (स्वसुः) बहिन रात्रि के (परि) समाप्तिकाल में (व्युच्छन्ती) अँधेरे को हटाती हुई, (दिवः) द्युलोक की (दुहिता) पुत्री (स्या) वह उषा (प्रति अदर्शि) पूर्व दिशा में दिखायी दे रही है ॥ द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (सूनरी) योगमार्ग में उत्तम नेतृत्व करनेवाली, (जनी) मोक्ष की जननी, (स्वसुः) संसारमार्ग पर डालनेवाली अविद्या की (परि) समाप्ति पर (व्युच्छन्ती) उदित होती हुई, (दिवः) प्रकाशमय सविकल्पक समाधि की (दुहिता) पुत्री-तुल्य (स्या) वह ऋतम्भरा प्रज्ञा (प्रति अदर्शि) साक्षात् अनुभव में आ रही है ॥१॥ यहाँ श्लेष और स्वभावोक्ति अलङ्कार हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

१. ऋ० ४।५२।१। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रेऽस्मिन्नुषस इव स्त्रिया गुणानाह।

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ भौतिकोषर्दृष्टान्तेन दिव्यामुषसं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—प्राकृतिक्या उषसः पक्षे। (सूनरी) प्रकाशस्य सुनेत्री, (जनी) सूर्यस्य जनयित्री, (स्वसुः) स्वसृस्थानीयाया रात्रेः (परि) पर्यवसानकाले (व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती। [वि पूर्वः उछी विवासे भ्वादिस्तुदादिश्च।] (दिवः) द्योतमानस्य द्युलोकस्य (दुहिता) पुत्रीस्थानीया (स्या) सा उषाः (प्रति-अदर्शि) प्राच्यां दिशि प्रतिदृश्यते ॥ द्वितीयः—दिव्याया उषसः पक्षे। (सूनरी) योगमार्गे सुष्ठु नेतृत्वकारिणी, (जनी) निःश्रेयसस्य जनयित्री, (स्वसुः) संसारमार्गे प्रक्षेप्त्र्या अविद्यायाः (परि) पर्यवसाने (व्युच्छन्ती) उदयन्ती, (दिवः) प्रकाशमयस्य सविकल्पकसमाधेः (दुहिता) पुत्रीव विद्यमाना (स्या) सा उषाः ऋतम्भरा प्रज्ञा (प्रति-अदर्शि) प्रतिदृश्यते, साक्षादनुभूयते ॥१॥२ अत्र श्लेषः स्वभावोक्तिश्चालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा प्राकृतिक्युषा रात्रेर्निविडं तमो निवार्य भूतले प्रकाशं जनयति तथैव योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञा योगविघ्नानपास्याध्यात्मप्रसादं प्रयच्छति ॥१॥ जैसे प्राकृतिक उषा रात्रि के घोर अँधेरे को हटाकर भूतल पर प्रकाश उत्पन्न करती है, वैसे ही योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा योग के विघ्नों को दूर करके, अध्यात्म-प्रसाद देती है ॥१॥